न हो शबाब तो कैफ़िय्यत-ए-शराब कहाँ न हो शबाब तो कैफ़िय्यत-ए-शबाब कहाँ चला हूँ काबे को लेकिन चला नहीं जाता न हो जो शौक़ ही दिल में तो इज़्तिराब कहाँ अदू की बज़्म में दुश्मन हज़ार बैठे हैं मिला भी हाए वो काफ़िर तो बे-हिजाब कहाँ किसी तरह शब-ए-ग़म की सहर नहीं होती ख़ुदा ही जाने कि डूबा है आफ़्ताब कहाँ हरम में बैठे हो 'माइल' ख़ुदा ख़ुदा कीजे यहाँ वो साक़ी-ए-महवश कहाँ शराब कहाँ