न ज़िक्र-ए-आश्ना ने क़िस्सा-ए-बेगाना रखते हैं हदीस-ए-यार रखते हैं यही अफ़्साना रखते हैं चमन में सर्व-क़द गर जल्वा-ए-मस्ताना रखते हैं ब-रंग-ए-तौक़-ए-क़ुमरी हम ख़त-ए-पैमाना रखते हैं ख़याल आँखों का तेरी जबकि ऐ जानाना रखते हैं तो जूँ नर्गिस हर इक अंगुश्त बर पैमाना रखते हैं नुमायाँ ज़ुल्फ़ के हल्क़े में कर टुक ख़ाल-ए-आरिज़ को कि हैं सय्याद जितने दाम में वो दाना रखते हैं ब-जुज़-आईना माशूक़ों की कब हो ज़ुल्फ़-पर्दाज़ी कि अक्स-ए-पंजा-ए-मिज़्गाँ से दस्त-ए-शाना रखते हैं बजाए हल्क़ा-ए-काकुल हैं ख़ाल-ए-रू-ए-सैद-अफ़्गन ब-चश्म-ए-दाम जा-ए-मर्दुमुक याँ दाना रखते हैं बिसान-ए-चोब-ओ-नक़्क़ारा हैं ख़ार ओ आबला-पाई ब-वादी-ए-जुनूँ-अंगेज़ नौबत-ख़ाना रखते हैं नहीं अश्क-ए-मुसलसल ये गरेबाँ-गीर ऐ साक़ी गले में अपने आशिक़ सुब्हा-ए-सद-दाना रखते हैं सदा-ए-आश्नाई मिस्ल-ए-हमदम हो सो वो जाने कि मिस्ल-ए-बाँसुरी अंगुश्त-बर हर ख़ाना रखते हैं न उलझो इस क़दर बे-वज्ह सुलझाने में ज़ुल्फ़ों के दिल-ए-सद-चाक तो हम भी ब-रंग-ए-शाना रखते हैं दिल अपना क्यूँ न हो बहर-ए-जहाँ में जूँ गुहर काला तलाश-ए-आब है हम को न फ़िक्र-ए-दाना रखते हैं न क्यूँकर बज़्म में रौशन हो अपनी शब ये दिल-सोज़ी कि उल्फ़त शम्अ-रू से हम भी जूँ परवाना रखते हैं बहार आई है अब तो ऐ जुनूँ हो सिलसिला जुम्बाँ कि हम मुद्दत से क़स्द-ए-रफ़्तन-ए-वीराना रखते हैं निगह टुक अबरू-ओ-चश्म-ए-बुताँ पर कीजियो ज़ाहिद कि ये मेहराब-ए-मस्जिद के तले मय-ख़ाना रखते हैं बिठाएँ सर्व-ओ-शमशाद अपने सर पर क्यूँ न क़ुमरी को तिरे क़द के हैं बंदे वज़्-ए-आज़ादाना रखते हैं ठिकाना कुछ न पूछो हम से तुम ख़ाना-ब-दोशों का जहाँ जूँ बू-ए-गुल ठहरे वहीं काशाना रखते हैं हमें मत छेड़ कर देखो रुलाओ और जलाओ तुम कि तूफ़ाँ चश्म में सीने में आतिश-ख़ाना रखते हैं करेंगे बैअत-ए-दस्त-ए-सुबू पीर-ए-मुग़ाँ तुझ से कि शौक़-ए-शर्ब-ए-मय है मशरब-ए-रिंदाना रखते हैं 'नसीर' अब हम को क्या है क़िस्सा-ए-कौनैन से मतलब कि चश्म-ए-पुर-फ़ुसून-ए-यार का अफ़्साना रखते हैं 'नसीर' उस शोख़ से कहना कि पेश-ए-चश्म-ए-हैरत में तसव्वुर रोज़-ओ-शब तेरा हम ऐ जानाना रखते हैं