न ज़िंदगी से शिकायत न तुम से शिकवा है मिरा लिबास ही मेरे लहू का प्यासा है बदन को छोड़ के जाऊँ तो अब कहाँ जाऊँ जनम जनम से मिरा उस के साथ रिश्ता है मिरा वजूद मिरी अपनी ही निगाहों में लिबास-ए-जिस्म के होते हुए भी नंगा है सलीब लाओ इसे सुर्ख़-रू किया जाए कोई किताब लिए आसमाँ से उतरा है तुम्हारे जिस्म में मैं हूँ मिरे वजूद में तुम हर एक आदमी इक दूसरे में ज़िंदा है तुम अपने आप से क्यों अजनबी से लगते हो तुम्हारे जिस्म पे 'शादाब' किस का पहरा है