न जाने कब की दबी तल्ख़ियाँ निकल आईं ज़रा सी बात थी और बर्छियाँ निकल आईं हुआ ये हम पे अँधेरों की साज़िशों का असर हमारे ज़ेहन में भी खिड़कियाँ निकल आईं मुझे नवाज़ दी मौला ने फूल सी बेटी मिरे हिसाब में कुछ नेकियाँ निकल आईं वो पेड़ जिस पे क़ज़ा बन के बिजलियाँ टूटीं सुना है उस पे हरी पत्तियाँ निकल आईं बदलती रुत में ये कम-ज़र्फ़ियों का आलम है बिलों से पँख लिए च्यूंटियाँ निकल आईं ख़ुदा के वास्ते अब तो सफ़र तमाम करो कि अब क़फ़स से भी तो उँगलियाँ निकल आईं ये मो'जिज़ा ही तो है ऐ 'नफ़स' कि तूफ़ाँ में समुंदरों से सभी कश्तियाँ निकल आईं