न कहो तुम भी कुछ न हम बोलें आओ ख़ामोशियों के लब खोलें बस्तियाँ हम ख़ुद ही जला आए किसी बरगद के साए में सो लें कुछ नए रंग सामने आएँ आ कई रंग साथ में घोलें ज़र्द मंज़र अजीब सन्नाटे खिड़कियाँ क्यूँ घरों की हम खोलें रास्ते सहल हैं मगर 'ताबिश' कौन है साथ जिस के हम हो लें