न कर शुमार कि हर शय गिनी नहीं जाती ये ज़िंदगी है हिसाबों से जी नहीं जाती ये नर्म लहजा ये रंगीनी-ए-बयाँ ये ख़ुलूस मगर लड़ाई तो ऐसे लड़ी नहीं जाती सुलगते दिन में थी बाहर बदन में शब को रही बिछड़ के मुझ से बस इक तीरगी नहीं जाती नक़ाब डाल दो जलते उदास सूरज पर अंधेरे जिस्म में क्यूँ रौशनी नहीं जाती हर एक राह सुलगते हुए मनाज़िर हैं मगर ये बात किसी से कही नहीं जाती मचलते पानी में ऊँचाई की तलाश फ़ुज़ूल पहाड़ पर तो कोई भी नदी नहीं जाती
This is a great लहजा शायरी.