न कोई ग़ैर न अपना दिखाई देता है हर आदमी मुझे तुझ सा दिखाई देता है रविश रविश तिरे क़दमों के नक़्श मिलते हैं गली गली तिरा चेहरा दिखाई देता है शब-ए-फ़िराक़ की तारीकियों का हाल न पूछ चराग़-ए-माह भी अंधा दिखाई देता है अजीब रंग-ए-बहाराँ है अब के गुलशन में न कोई फूल न ग़ुंचा दिखाई देता है उतर के देख ज़रा प्यार के समुंदर में कि मौज मौज में रस्ता दिखाई देता है कहाँ कहाँ पे जलाऊँ दिल-ओ-नज़र के चराग़ हर एक घर में अंधेरा दिखाई देता है उसी का ज़हर है हाथों में आज तक 'इक़बाल' वो एक फूल जो प्यारा दिखाई देता है