न कोई मरहला दुश्वार होगा जुनूँ जब क़ाफ़िला सालार होगा शफ़क़ ये रंग लाएगी सहर तक कि ख़ूँ-आलूद हर अख़बार होगा रहेगा जो भी मुफ़्लिस अहद-ए-नौ में यक़ीनन साहब-ए-किरदार होगा ये घर को देख कर मैं सोचता हूँ किसी दिन मुझ पे ये घर बार होगा तशद्दुद करने वाले ये भी सोचें कि इक दिन सब से इस्तिफ़्सार होगा मसाइब से ही जब फ़ुर्सत न होगी तो कब ज़िक्र-ए-लब-ओ-रुख़्सार होगा न जागे लोग तो ये सोच ले फिर 'शरर' जलना तिरा बे-कार होगा