न कोई शख़्स न साया कहीं नगर में था बला का ख़्वाब-ए-तमाशा मिरी नज़र में था उभरते डूबते रिश्तों की धूप छाँव में इक अजनबी की तरह मैं भी अपने घर में था सरों के फूल की बारिश न थम सकी आख़िर उमडते दार का सावन मिरे नगर में था तड़प रही थीं दरीचों में डूबती किरनें गुज़रते वक़्त का सूरज कहीं खंडर में था पुकार लें न कहीं धूप में घनी शाख़ें बस एक ख़ौफ़ यही दोस्तो सफ़र में था