न मैं ही तन्हा था न मेरी रहगुज़र तन्हा शरीक-ए-राह रहे तुम मगर सफ़र तन्हा हिसार-ए-रंग से बाहर सभी निकल आए उलझ के रह गई इक मेरी ही नज़र तन्हा बहुत क़रीब है कि तुम से गुफ़्तुगू भी हो दयार-ए-फ़िक्र में आते रहे अगर तन्हा हुरूफ़ ही की तरह टूटते बिखरते रहे किताब पढ़ते रहे हम जो रात भर तन्हा अजीब तर्ज़-ए-रिहाइश है ऐ 'असद' उस की बहुत दिनों से मिरे साथ है मगर तन्हा