न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं अजब सफ़र है कि बस हम-सफ़र को देखते हैं न पूछ जब वो गुज़रता है बे-नियाज़ी से तो किस मलाल से हम नामा-बर को देखते हैं तिरे जमाल से हट कर भी एक दुनिया है ये सेर-चश्म मगर कब उधर को देखते हैं अजब फ़ुसून-ए-ख़रीदार का असर है कि हम उसी की आँख से अपने हुनर को देखते हैं 'फ़राज़' दर-ख़ुर-ए-सज्दा हर आस्ताना नहीं हम अपने दिल के हवाले से दर को देखते हैं