न सहन-ओ-बाम न दीवार-ओ-दर पुराने हैं अगर मकीं हैं पुराने तो घर पुराने हैं सख़ावतों ही के दम से है ताज़गी का भरम समर न दें तो यक़ीनन शजर पुराने हैं दिल ऐसी सूरत-ए-तामीर पर जमे कब तक तमाम नक़्श ही दीवार पर पुराने हैं हवा की लहर है अब जिस तरह भी शोहरत दे जुनूँ पुराना न आशुफ़्ता-सर पुराने हैं क़बाहतें तो यहीं हैं मसाफ़तों में मिरी सफ़र नया है शरीक-ए-सफ़र पुराने हैं मैं ना-बलद हूँ रफ़ू की रिवायतों से तो फिर निकलते क्यूँ नहीं जो बख़िया-गर पुराने हैं ये रब्त-ए-ख़ैर निशाँ है सफ़-ए-हुनर के लिए जो कुछ नए हैं तो कुछ दीदा-वर पुराने हैं सभी ख़राबे हैं दोश-ए-ज़मीं पे बार मगर ज़ियादा बोझ वो हैं जो खंडर पुराने हैं