न सैल-ए-रंग न सय्यारा माहताब मिरा है मेरे सीने में अँगारा माहताब मिरा छटी उफ़ुक़ की सियह-गर्द तो दिखाई दिया पयाम-ए-वस्ल का हरकारा माहताब मिरा ख़ला में मुज़्तरिब-ओ-बे-क़याम मेरी तरह ये मेरे दश्त का बंजारा माहताब मिरा ख़ुनुक हवाओं का मस्कन बिसात-ए-ख़ाक मिरी लहू की आँच का गहवारा माहताब मिरा चिहार सम्त मरे आब-ज़ार और इस में ग़ुरूब होता हुआ तारा माहताब मिरा ख़ुद अपने नूर से करता है इक्तिसाब-ए-जमाल वो एक शोला-ए-आवारा माहताब मिरा तमाम रात मुख़ातिब रहा मरे दिल से वही सुकूत का फव्वारा माहताब मिरा ज़मीं पे धूम मिरे ज़ख्म-ए-ना-शगुफ़्ता की फ़लक पे हासिल-ए-नज़्ज़ारा माहताब मिरा मैं जुस्तुजू में उसी कूज़ा-गर की हूँ 'इशरत' है जिस के चाक का फ़न-पारा माहताब मिरा