न सारे ऐब हैं ऐब और हुनर हुनर भी नहीं कुछ एहतियात तो कीजे पर इस क़दर भी नहीं तुम्हारे हिज्र में बाँधा है वो समाँ हम ने कि आँख हम से मिलाता है नौहागर भी नहीं नहीं ज़रा भी तो उस ने नहीं मिलाया रुख़ मैं उस को देख रहा था ये जान कर भी नहीं ये हम ने भूल की आ पहुँचे उन की महफ़िल में पर उन से अर्ज़-ए-तमन्ना तो भूल कर भी नहीं कोई तो रंग बिखेरेगी ज़िंदगी की ये धूप अगर तवील नहीं है तो मुख़्तसर भी नहीं भला मैं कैसे इसे दोस्त मान लूँ 'फ़रहत' जो अहल-ए-ज़ुल्म नहीं और चारागर भी नहीं