न तारे अफ़्शाँ न कहकशाँ है नमूना हँसती हुई जबीं का खुला है परचम गड़ा है झंडा फ़लक पर उस आह-ए-आतिशीं का रहे हैं घुल-मिल के कैसे दोनों ये एक हैं दिल के कैसे दोनों छुटा जो हम से किसी का दामन तो साथ है अश्क-ओ-आस्तीं का जो एक हो तो हम उस को रोएँ हुए हैं दुश्मन बदन के रोएँ हमें तो हर तार-ए-आस्तीं पर गुमान है मार-ए-आस्तीं का जो रंग उन का बदल चला है तो शौक़ अब है न वलवला है बहुत ही नाज़ुक मुआ'मला है विसाल-ए-मा'शूक़-ए-नाज़नीं का चढ़ी है कच्चे घड़े की ऐसी बंधी है ये धुन हमें भी साक़ी चखाएँ वाइ'ज़ को आज हम भी ज़रा मज़ा शहद-ओ-अंग्बीं का तुम्हारे इंकार ने चुभोए हमारे दिल में हज़ारों नश्तर तुम ऐसे नाज़ुक कि नक़्श बन कर रहा लबों पर निशाँ नहीं का जो छींटें उड़ कर पड़ीं ख़ुदाया वो और महशर करेंगी बरपा है मेरी गर्दन पर और उल्टा ये ख़ून क़ातिल की आस्तीं का कली न दामन की मुस्कुराए न आस्तीं तेरी गुल खिलाए मैं सदक़े क़ातिल न रंग लाए ये ख़ून दामन का आस्तीं का 'रियाज़' मा'शूक़-ए-माह-पैकर कोई न कोई है जलवा-गुस्तर कि शाम आई है जो मिरे घर वो चाँद लाई है चौदहवीं का