न होते अहल-ए-दिल अहल-ए-सितम जाने कहाँ जाते ये बर्क़-अंदाज़ जल्वे आग बरसाने कहाँ जाते सभी ज़ाहिद-सिफ़त होते तो मयख़ाने कहाँ जाते शबाब-ओ-कैफ़-ओ-सरमस्ती के अफ़्साने कहाँ जाते वो यूँ कहिए कि ठोकर खा के आता है सँभल जाना वगर्ना तुम से ज़ालिम हम से पहचाने कहाँ जाते जुनूँ गर इंक़िलाब-ए-दहर की राहों पे चल पड़ता जनाब-ए-ख़िज़्र क्या करते ये फ़रज़ाने कहाँ जाते मुजस्सम बर्फ़ हों जज़्बात जिन के उन से क्या हासिल हम ऐसी बे-हिसी में ख़ून गरमाने कहाँ जाते मिरे ही दम से हैं 'मंज़ूर' उन की जल्वा-गाहें भी वगर्ना हश्र-सामाँ नाज़ फ़रमाने कहाँ जाते