न कर हरगिज़ न कर ये गुफ़्तुगू अच्छा नहीं लगता वफ़ा का ज़िक्र मेरे रू-ब-रू अच्छा नहीं लगता पिलाई है ग़मों ने वो मय-ए-रंगीन मत पूछो कि अब मुझ को कोई जाम-ओ-सुबू अच्छा नहीं लगता शब-ए-महताब की ये चाँदनी फीकी सी लगती है गुल-ए-ख़ुश-रंग तेरे रू-ब-रू अच्छा नहीं लगता इजाज़त हो अगर तो सर मैं अपना ख़ुद क़लम कर लूँ तुम्हारी आस्तीनों पर लहू अच्छा नहीं लगता ये मय-ख़ाना है करिए एहतिराम-ए-मय-कशी साहिब यहाँ आए जो कोई बे-वुज़ू अच्छा नहीं लगता