ना-ख़ुदा को जब ख़ुदा का आसरा मिलता नहीं उम्र भर उस को किनारों का पता मिलता नहीं अज़्म-ओ-हिम्मत हो तो हर इक रास्ता नज़रों में है कौन सी मंज़िल है जिस का रास्ता मिलता नहीं हादसों ने ग़म के अफ़्साने मुरत्तब कर दिए अब किताब-ए-ज़िंदगी में हादिसा मिलता नहीं अहल-ए-बातिन की इनायत भी ज़रूरी है बहुत अहल-ए-ज़ाहिर के मिलाए से ख़ुदा मिलता नहीं कुछ न कुछ अपनाइयत नज़रों में होनी चाहिए अजनबी नज़रों को सूरत-आश्ना मिलता नहीं जज़्ब साँसों में मिरी ये कौन आख़िर हो गया अब मिरी पहचान अब मेरा पता मिलता नहीं हुस्न हर ता'मीर का क़ाएम है मेरी ज़ात में मैं वो मिट्टी हूँ मुझे छानो तो क्या मिलता नहीं ज़िंदगी वक़्फ़-ए-ख़याल-ए-दोस्त है अपनी 'ज़मीर' अब किसी गोशे में एहसास-ए-अना मिलता नहीं