ना-आश्ना-ए-दर्द नहीं बेवफ़ा नहीं इक आश्ना कि हाए मिरा आश्ना नहीं लाऊँ जो दिल की बात ज़बाँ पर तो किस लिए मैं जानता नहीं हूँ कि तू जानता नहीं जलता रहा हूँ ज़ीस्त के दोज़ख़ में उम्र भर ये और बात है मिरी कोई ख़ता नहीं इक साग़र-ए-हयात की ख़ातिर तमाम उम्र वो कौन सा है ज़हर जो मैं ने पिया नहीं शायद दरूद-ए-फ़स्ल-ए-बहाराँ क़रीब है अहल-ए-जुनूँ ने चाक-ए-गरेबाँ सिया नहीं हुस्न-ए-उरूस-ए-गुल कि जमाल-ए-समन-बराँ दुनिया में कुछ भी ज़ौक़-ए-नज़र के सिवा नहीं तेरे हरीम-ए-नाज़ की उस को ख़बर हो क्या जो सरहद-ए-ख़याल से आगे गया नहीं 'रिफ़अत' जहाँ में रस्म-ए-वफ़ा ही नहीं रही उन से तो क्या किसी से भी मुझ को गिला नहीं