नाम हमारा दुनिया वाले लिखेंगे जी-दारों में नाच रहे हैं अपनी अपनी लाश पे हम बाज़ारों में एक पुरानी रस्म है बाक़ी आज तलक दरबारों में चाँद से चेहरे चुन देते हैं पत्थर की दीवारों में आज कहाँ हैं शहर में यारो ऊँची गर्दन वाले लोग आम हैं अब तो पाँव बड़े और सर छोटे सरदारोँ में पार उतरने वालों को अब दीवानों में गिनते हो शायद ख़ुश-क़िस्मत थे वो जो डूब गए मंजधारों में क्या मा'लूम कोई चिंगारी जाग उठे और चीख़ पड़े बेहतर है तुम हाथ न डालो इन बुझते अँगारों में वार पे वार सहे हैं लेकिन एक लहू की बूँद नहीं जिस्म हैं सारे पत्थर के या काट नहीं तलवारों में काँच के ये चमकीले टुकड़े आख़िर ख़ून रुलाते हैं दिल से सच्ची चीज़ न बाँटो उन झूटे दिल-दारों में कौन तुम्हारा दर्द बटाए किस को इतनी फ़ुर्सत है नाम 'रशीद' तुम अपना लिख लो ख़ुद अपने ग़म-ख़्वारों में