नाम की अपने माला जपने दो बन के जोगी कहीं पे खपने दो मंज़र-ए-आम से ज़रा पहले मंज़र-ए-ख़ास तक पहुँचने दो ठीक है छोड़ कर चले जाना पर मिरा इश्क़ तो पनपने दो हो रिफ़ाक़त बिना मोहब्बत हो चार आँखें हुईं हैं सपने दो दिल मिरे सेर क्यों नहीं होता ओह हो आँख तो झपकने दो ख़ुद ही इक दिन बनूँगा मैं गुलज़ार इश्क़ की आग है भड़कने दो