नाच हो रंग हो अहबाब की मेहमानी हो हो अजब लुत्फ़ जो लड़कों की मुसलमानी हो क़ोरमा ज़र्दा हो बिरयानी हो बूरानी हो हाँडी मौक़ूफ़ के तकिए में ये दीवानी हो तुझ को मा'लूम हो हाल-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त ऐ शैख़ एक दिन तुझ से जुदा गर तिरी शैख़ानी हो सख़्त पत्थर है तिरा नाज़ बुत-ए-संगीन दिल वो उठाए तिरे ग़मज़ों को जो बँधानी हो मेरे बिस्तर को सड़े टाट का टुकड़ा होवे तिरी गद्दी के लिए मख़मल-ए-काशानी हो सब्ज़ रंगों का ज़रा दौर तो आए ज़ाहिद तू सही भंग अमामे में तिरे छानी हो ग़म-ज़दा आलम-ए-तन्हाई में हम बैठे हैं जाए कैलाश के मेले को जो सैलानी हो अड़वे भड़वन पे गिरी पड़ती हो कुछ शर्म नहीं तुम तो नोची से सिवा नाइका मस्तानी हो मोतियाबिंद हुआ जाता है आँखों में यहाँ अब भी आ जाओ जो सूरत तुम्हें दिखलानी हो क़त्ल-ए-आशिक़ के सिवा और कोई काम नहीं तुम भी चंगेज़ हो या नादिर-ए-दुर्रानी हो मेहर ने सुन के ये अशआ'र 'इनायत' से कहा तुम 'निज़ामी' हो कि 'सादी' हो कि 'ख़ाक़ानी' हो