नए अंदाज़ से वो मुझ को सज़ा देने लगा जब मिलूँ मैं मुझे जीने की दुआ देने लगा उस के क़दमों को हक़ाएक़ ने न छोड़ा तो वो शख़्स भागते लम्हों को घबरा के सदा देने लगा किस ने कल रात मिरे सहन में पत्थर फेंके ये मुअ'म्मा न खुला जब तो मज़ा देने लगा चेहरे धुँदलाने लगे जब भी रफ़ीक़ों के 'वक़ार' अपने आईनों को मैं और जिला देने लगा