नफ़स नफ़स है भँवर चढ़ती शब का मंज़र है हिसार-ए-जिस्म में इक चीख़ता समुंदर है हवा-ए-ताज़ा के मानिंद मत लिपट मुझ से गई रुतों का बहुत ज़हर मेरे अंदर है निकल के जाऊँ गुनह-गार-ए-तीरगी से किधर हर एक हाथ में अब रौशनी का पत्थर है इक आग उड़ती हुई सी वही तआ'क़ुब में बदन की राख अभी शायद बदन के अंदर है तू क्यूँ उढ़ाता है मुझ को ये रौशनी की रिदा मुझे ख़बर है अँधेरा मिरा मुक़द्दर है सलीब-ए-शब से 'मुसव्विर' सहर के मक़्तल तक कहाँ मिलें कि हर इक फ़ासला बराबर है