नफ़स नफ़स इज़्तिराब सा कुछ है ज़िंदगी या अज़ाब सा कुछ फ़रेब खाती है प्यास अपनी क़दम क़दम है सराब सा कुछ नई नई गुफ़्तुगू का नश्शा बड़ी पुरानी शराब सा कुछ किसी वसीले तो रात गुज़रे न नींद है और न ख़्वाब सा कुछ हैं चश्म-ए-गिर्यां को ग़म हज़ारों चलो करें इंतिख़ाब सा कुछ इन अच्छे लोगों में वाक़ई क्या कहीं नहीं है ख़राब सा कुछ वरक़ वरक़ पढ़ लिया गया वो था जिस का चेहरा किताब सा कुछ ये राह पुर-ख़ार कुछ नहीं जब चुभा हो दिल में गुलाब सा कुछ न जाने क्यों ख़ुद अज़िय्यती से मुझे नहीं इज्तिनाब सा कुछ 'अमर' वही शख़्स दिल का जो है ज़रा सा अच्छा ख़राब सा कुछ