नग़्मों के क़ाफ़िले का मैं तन्हा नक़ीब था या शाख़-ए-काएनात पे इक अंदलीब था अपना कोई रफ़ीक़ न कोई रक़ीब था मैं ख़्वाहिशों की बज़्म में सब के क़रीब था ज़ीने पे क़स्र-ए-वक़्त के चढ़ता चला गया मेरा शिकस्ता हौसला जो ख़ुश-नसीब था उस के बदन से लिपटी हुई थी लहू की शाख़ वो शख़्स जो कि शहर-ए-अना का ख़तीब था थीं आसमाँ की वुसअ'तें अपनी निगाह में लम्हात-ए-गुम-शुदा का तसव्वुर अजीब था गिर्दाब-ए-हादसात में हम फँस के रह गए जब साहिल-ए-मुराद बहुत ही क़रीब था लोगों से मिल रही थी उसे रौशनी की भीक दिल के हसीं दयार में 'जामी' ग़रीब था