नहीं है बहर-ओ-बर में ऐसा मेरे यार कोई कि जिस ख़ित्ते का मिलता हो न दावेदार कोई यूँही बुनियाद का दर्जा नहीं मिलता किसी को खड़ी की जाएगी मुझ पर अभी दीवार कोई पता चलने नहीं देता कभी फ़रियादियों को लगा कर बैठ जाता है कहीं दरबार कोई निगाहें उस के चेहरे से नहीं हटतीं जो देखूँ कि है उस के गले में बेश-क़ीमत हार कोई बचाता फिरता हूँ दरिया में अपनी कश्ती-ए-जाँ कभी इस पार है कोई भी उस पार कोई उसी का क़हर बरपा है उसी का फ़ैज़ जारी हर इक मजबूर का है मालिक-ओ-मुख़्तार कोई कहलवाया है उस ने फाँद कर दीवार आ जाना अगर दरवाज़े पर बैठा हो पहरे-दार कोई