नहीं है यूँ कि उसे हम तमाम भूल गए वो शक्ल याद रही उस का नाम भूल गए वो बोलती हुई आँखें हमें रहीं अज़बर ज़बान-ए-ख़ल्क़ के सारे कलाम भूल गए तलाश-ए-तिश्ना-लबी में वो नश्शा था कि हमें नसीब में थे जो लबरेज़ जाम भूल गए मिला तो सुनते रहे दास्तान दुश्मन की हमारे दिल में था जो इंतिक़ाम भूल गए किसे समझना है रहज़न तो रहनुमा किस को ये फ़ैसले की घड़ी में अवाम भूल गए ये बे-ख़ुदी से भी आगे की राह थी शायद जिसे पुकारने निकले वो नाम भूल गए