नहीं इस चुप के पीछे कुछ नहीं ऐसा बस इक शुब्हा सा है तुम से भी वाबस्ता उसे तो ख़ैर इतना भी नहीं अब याद कि पहला जाल उस ने किस पे फेंका था अजब सुख था किसी का दुख बटाने में मैं अपनी मौत भी ज़ाहिर न करता था हम ऐसों की जगह बनती ही कितनी है हम ऐसों का ठहरना क्या बिछड़ना क्या मुझे दरकार है फिर भीगी सी आँखें वगर्ना अगली रुत में सूख जाऊँगा यही इक दुख तो सीने में सभी के है कोई सच-मुच में अपने साथ था भी या