नहीं इस दश्त में कोई ख़िज़र है कि बस मैं हूँ मिरी गर्द-ए-सफ़र है हक़ीक़त आख़िरी ये मुख़्तसर है कहीं सुनसान सा तारीक घर है न संग-ए-राह है न राहबर है भटकता दिल है और धुँदली नज़र है जो मंज़िल ही से हो ग़ाफ़िल मुसाफ़िर भला क्या लुत्फ़ जो रौशन नज़र है न आलम हम से ख़ुश न ख़ुद से हम ख़ुश ये बीना आँख भी क्या दर्द-ए-सर है ये ज़ीने जल्दी जल्दी चढ़ने वाले पस-ए-अज़-बाम क्या है कुछ ख़बर है