नहीं ज़माने में हासिल कहीं ठिकाना मुझे कहाँ कहाँ लिए फिरता है आब-ओ-दाना मुझे वो देखते हैं ब-अंदाज़-ए-मुजरिमाना मुझे कि जिन से प्यार है ऐ दोस्त वालिहाना मुझे झुलसती धूप में ऐ काश ऐसा वक़्त आए नसीब हो तिरी पलकों का आशियाना मुझे कभी रहा न ग़रीबों से वास्ता जिस को वो देगा क्या मिरी मेहनत का मेहनताना मुझे बला से जुर्म हो इंसाफ़ की निगाहों में तुम्हारी बात तो लगती है मुंसिफ़ाना मुझे तलाश-ए-रिज़्क़ में आए न जिस में कोताही इलाही दे वही परवाज़-ए-ताइराना मुझे मैं सादा-लौही पे अपनी हूँ मुतमइन यारो ख़ुदा के वास्ते समझे न कोई दाना मुझे मिरी हयात की ये भी अजीब उलझन है भुलाना तुझ को कभी भी लगा रवा न मुझे किताब दी थी सदाक़त की माँ ने हाथों में सफ़र पे पहले-पहल जब किया रवाना मुझे ख़ुदा का शुक्र है ऐ 'शौक़' अब भी ज़िंदा हूँ सता रहा है ज़माने से ये ज़माना मुझे