नहीं कि इश्क़ नहीं है गुल ओ समन से मुझे दिल-ए-फ़सुर्दा लिए जाता है चमन से मुझे मिसाल-ए-शम्अ है रोना भी और जलना भी यही तो फ़ाएदा है तेरी अंजुमन से मुझे बढ़ी है यास से कुछ ऐसी वहशत-ए-ख़ातिर निकाल कर ही रहेगी ये अब वतन से मुझे अज़ीज़ अगर नहीं रखता न रख ज़लील ही रख मगर निकाल न तू अपनी अंजुमन से मुझे वतन समझने लगा हूँ मैं दश्त-ए-ग़ुर्बत को ज़माना हो गया निकले हुए वतन से मुझे मिरे भी दाग़-ए-जिगर मिस्ल-ए-लाला हैं रंगीं है चश्मक उस गुल-ए-ख़ूबी के बाँकपन से मुझे छुपा न गोशा-नशीनी से राज़-ए-दिल 'वहशत' कि जानता है ज़माना मिरे सुख़न से मुझे