नहीं कुछ फ़ैज़ हासिल था ज़माने से ख़फ़ा हो कर मैं दीवाना बना हूँ ख़ुद ही उस बुत पर फ़ना हो कर मेरी दुनिया में अश्क-ओ-ख़ूँ का ताँता रहा हर-दम कभी तेरी वफ़ाओं में कभी तुम से जुदा हो कर तसव्वुर में भी पिंदार-ए-वफ़ा का लुत्फ़ हासिल था तुम्हारी ज़ुल्फ़-ए-क़ातिल-ए-पेशा के ख़म में फ़ना हो कर गँवाई अश्कों ने तासीर जो ख़ून-ए-जिगर की थी गिरा जब आब-ए-गौहर भी लिबास-ए-तन पे वा हो कर यही दुनिया की तंग-बीनी से मिलता है वफ़ाओं को जुदा हो जाते हैं आशिक़ सनम से बेवफ़ा हो कर वही बे-सूद सी बंदिश ज़माने के उसूलों की वफ़ा को क़ैद कर देती हैं ज़ंजीरें सज़ा हो कर मैं किन मजबूरियों का अब करूँ मातम बता 'बालिग़' जो पाया बे-ख़ुदी में वो गँवाया आश्ना हो कर