नज़ाकत मोहब्बत का ग़म खा रही है मोहब्बत मोहब्बत हुई जा रही है तुम्हारी नज़र के हसीं मय-कदों में उरूस-ए-ख़राबात इठला रही है नज़र क्या लड़ी एक ख़ंदाँ नज़र से जवानी तबस्सुम बनी जा रही है तसव्वुर के हाथों में दे कर खिलौने जवानी मोहब्बत को बहला रही है ये क्या बात है अजनबी अँखड़ियों से कोई जानी-बूझी सदा आ रही है न फूलों की रुत है न कलियों का मौसम मगर बुलबुल-ए-बे-नवा गा रही है ये 'अलताफ़' कौन आ गया वक़्त-ए-आख़िर क़ज़ा नर्म-ओ-शीरीं हुई जा रही है