नज़्म ख़बरों को किया और न लतीफ़े लिक्खे मैं ने अशआ'र में जीने के सलीक़े लिक्खे मर्तबे अहल-ए-सुख़न के तुम्हें तय करने हैं किस ने हक़ बात कही किस ने क़सीदे लिक्खे सब को तदबीर भी करने को वही कहता है और हैं सब के मुक़द्दर भी उसी के लिक्खे शिद्दत-ए-मेहर से दी उस के ग़ज़ब को तश्बीह उस की रहमत को अगर फ़ज़्ल के साए लिक्खे कुछ ज़रूर उन में नसीहत थी मगर याद नहीं जो पढ़े थे वो बुज़ुर्गों के मक़ूले लिक्खे ज़िंदगी तुझ पे लिखूँगा न ज़ियादा अब कुछ जो भी मज़मून तिरी मद्ह में लिक्खे लिक्खे लिखता रहता है वही हर्फ़-ए-तअ'ल्लुक़ 'अख़्तर' उस से कह दो कि अब इस बात से आगे लिक्खे