नज़र भर के यूँ जो मुझे देखता है बता भी दे मुझ को कि क्या सोचता है मोहब्बत नहीं जैसे क्या कर लिया हो ज़माना मुझे इस क़दर टोकता है दिसम्बर की सर्दी है उस के ही जैसी ज़रा सा जो छू ले बदन काँपता है लगाया है दिल भी तो पत्थर से मैं ने मिरी ज़िंदगी की यही इक ख़ता है जिसे देख के ग़म भी रस्ता बदल दे वो चेहरा न जाने कहाँ लापता है कोई बात दिल में यक़ीनन ही है जो वो मिलते हुए ग़ौर से देखता है उसी की गली का कोई एक लड़का मोहब्बत का मुझ से हुनर पूछता है न ढूँढो कहीं भी मिलूँगा यहीं पे ये उजड़ी हवेली ही मेरा पता है कोई फ़र्क़ पड़ता नहीं 'मीत' को अब जहाँ उस के बारे में क्या सोचता है