नज़र की क्या कहें अब तो जिगर भी हो गए पत्थर कहाँ बू-ए-वफ़ा खोई कि घर भी हो गए पत्थर ख़ुदा तब बेबसी में शब सहर रोया यक़ीनन है गुलों से खिलखिलाते जब शजर भी हो गए पत्थर बड़ी उम्मीद ले कर मैं चली आई सुनो प्यारे मगर थी क्या ख़बर दीवार-ओ-दर भी हो गए पत्थर मुलम्मा' वक़्त का चढ़ता गया क्यूँ इस क़दर बोलो कि पत्थर को हँसा कर बा-हुनर भी हो गए पत्थर भरा है ज़हर दिल में किस ने तेरे बोल दे इतना असर ऐसा मोहब्बत के नगर भी हो गए पत्थर हवा झोंका नहीं लाई कभी क्या मेरी यादों का कहाँ है दफ़्न रौज़न इश्क़ तर भी हो गए पत्थर नदी का साथ देने की तड़प पाली समुंदर ने निभाना खेल समझा तो मुखर भी हो गए पत्थर यक़ीं करना हुआ मुश्किल क़सम टूटे सितारे की वही तुम बिन यही शम्स-ओ-क़मर भी हो गए पत्थर सदा ही नाज़ था तुझ पे मुझे ऐ दोस्त मेरी जाँ किया क्यूँ वार दिल पे ही 'अधर' भी हो गए पत्थर