नज़र नज़र को साक़ी-ए-हयात कहते आए हैं उन अँखड़ियों को मय-कदे की रात कहते आए हैं ब-चाशनी-ए-अहद-ए-नौ जो बात कहते आए हैं ग़म-ए-जहाँ को दिल की काएनात कहते आए हैं फ़रेब-ए-शौक़ को तख़य्युलात कहते आए हैं बिखर गए तो गेसुओं को रात कहते आए हैं उसी को ज़िंदगी का साज़ दे के मुतमइन हूँ मैं वो हुस्न जिस को हुस्न-ए-बे-सबात कहते आए हैं ये मुख़्लिसान-ए-इश्क़ भी अजब अदा-परस्त हैं वो मुस्कुरा दिए तो इल्तिफ़ात कहते आए हैं हयात ता-ममात एक सिलसिला है इश्क़ का कहाँ हैं वो जो मर्ग को नजात कहते आए हैं न ज़ाहिदों के वाज़-ए-तर्क-ए-इश्क़ पर हँसे कोई ये बे-ख़बर भी हौसले की बात कहते आए हैं ये ज़र्फ़-ए-बादा क्या है बादा-आश्ना से पूछिए हम इस को शीशा-ए-तजल्लियात कहते आए हैं ग़ज़ल है नाम हुस्न के मुआमलात-ए-ख़ाम का ख़ता हुई कि दिलबरों की बात कहते आए हैं सुकून ओ ख़्वाब ज़िंदगी की राह में कहाँ 'नुशूर' हयात को मुसाफ़िरत की रात कहते आए हैं