नज़रें झुकी सवाल पे मेरे जवाब में क्या क्या न कह गई है निगाहें हिजाब में मिज़राब ही से साज़ में है सारी नग़्मगी है ज़िंदगी का लुत्फ़ निहाँ इज़्तिराब में राह-ए-वफ़ा में उस के क़दम डगमगाएँ क्यों देखा है जिस ने तेरा करम भी इताब में सदक़े निगाह-ए-नाज़ के हूँ बे-नियाज़-ए-जाम आए ये कैफ़-ए-हुस्न कहाँ से शराब में मैं रह-नवर्द-ए-शौक़ हूँ मुझ को कहाँ ये होश राहत में गुज़रे दिल कि ये गुज़रे अज़ाब में रह रह के अब रुलाती है पीरी में उन की याद हँस हँस के ज़ख़्म खाए जो हम ने शबाब में ये ताज़गी ये रंग भी आया कहाँ से है काँटों का ख़ून ही तो है शायद गुलाब में पूरे कहाँ हुए मिरे अरमाँ गुनाह के क्या ख़ाक दिल लगेगा अभी से सवाब में बेदारियों की ताब न हम ला सके 'हबीब' गुज़री हयात एक मुसलसल से ख़्वाब में