नज़रों से बसीरत की निहाँ कुछ भी नहीं है सब कुछ है जहाँ और जहाँ कुछ भी नहीं है हम मिट गए इस फ़ितरत-ए-आशुफ़्ता की ख़ातिर हालाँकि वो ग़ारत-गर-ए-जाँ कुछ भी नहीं है दिल की जो न कहिए तो ज़बाँ काशिफ़-ए-असरार और दिल की जो कहिए तो ज़बाँ कुछ भी नहीं है दिल वालों को दिल वालों से है हर्फ़-ओ-हिकायत ज़ाहिर में मोहब्बत का निशाँ कुछ भी नहीं है रंगीन-ओ-नज़र सोज़-ए-मनाज़िर से गुज़र कर पहुँचा हूँ वहाँ मैं कि जहाँ कुछ भी नहीं है ये इश्क़ की ज़ाहिर हो तो हिल जाएँ दो-आलम जुज़ चंद इशारात निहाँ कुछ भी नहीं है मुझ ख़ूगर-ए-बे-गानी-ए-दोस्त को 'आली' बे-गांगी-ए-अहल-ए-जहाँ कुछ भी नहीं है