नज़रों से गुलों की नौ-निहालो शबनम की तरह गिरा सँभालो मानो रह-ए-सरकशी निकालो पगड़ी मह-ओ-मेहर की उछालो सय्याद ख़फ़ा है बुलबुल-ओ-कब्क ख़ामोश रहो न बोलो-चालो असनाम में शान-ए-हक़ अयाँ है आँखें हैं तो उन को देखो-भालो ठहरो कोई दम के मेहमान हैं चलते तो हैं हम भी चलने वालो मुश्ताक़-लक़ा है इक ख़ुदाई अब वा'दा हश्र पर न टालो झूटे वो तुम ऐ गुलो हो बरसों बे-दूध जो तिफ़्ल-ए-ग़ुंचा पा लो छलनी यूँही दिल है नीश-ए-ग़म से मिज़्गाँ की न बर्छियाँ संभालों होली नए क़ुमक़ुमों से खेलो पर ख़ून-ए-दिल-ए-आशिक़ाँ उछालो मारा ही जो 'शाद' को हसीनो ख़ातिर से ग़ुबार तो निकालो