नक़ाब-ए-बज़्म-ए-तसव्वुर उठाई जाती है शिकस्त-ख़ुर्दों की हिम्मत बढ़ाई जाती है भटकने लगता है राह-ए-वफ़ा से जब आलम हदीस-ए-इश्क़ हमारी सुनाई जाती है मता-ए-होश-ओ-ख़िरद बे-बहा सही लेकिन दर-ए-हबीब पे ये भी लुटाई जाती है नज़र से होती है लुत्फ़-ओ-करम की बारिश भी नज़र से बर्क़-ए-तपाँ भी गिराई जाती है वुफ़ूर-ए-शौक़ की देखो तो मस्लहत-कोशी जुनूँ की बात ख़िरद से छुपाई जाती है किस ए'तिमाद से आग़ाज़-ए-दौर-ए-उल्फ़त में ख़याल-ओ-ख़्वाब की दुनिया बसाई जाती है फ़ज़ा-ए-रूह पे तारीकियाँ मुसल्लत हैं हरम में शम-ए-अक़ीदत जलाई जाती है दिखा दिखा के मआल-ए-जुनूँ की फ़ित्नागरी बशर को रस्म-ए-मुरव्वत सिखाई जाती है मता-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत निगाह-ए-आलम से किस एहतियात से 'फ़ारिग़' छुपाई जाती है