नक़्श माज़ी के जो बाक़ी हैं मिटा मत देना ये बुज़ुर्गों की अमानत है गँवा मत देना वो जो रज़्ज़ाक़-ए-हक़ीक़ी है उसी से माँगो रिज़्क़ बर-हक़ है कहीं और सदा मत देना भीक माँगो भी तो बच्चों से छुपा कर माँगो तुम भिकारी हो कहीं उन को बता मत देना सुब्ह-ए-सादिक़ में बहुत देर नहीं है लेकिन कहीं उजलत में चराग़ों को बुझा मत देना मैं ने जो कुछ भी कहा सिर्फ़ मोहब्बत में कहा मुझ को इस जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा मत देना