नक़्श वो आँख में उतरा था कि जाता ही न था मैं ने इस धूप को ढलते कहीं देखा ही न था रूह की प्यास बुझाए न बुझेगी किसी ढंग मुझ को इस दश्त की पहनाई में उगना ही न था पहले इस घर की हर इक खिड़की खुली रहती थी यूँ मिला करते थे जैसे कोई पर्दा ही न था अब जो इंसान हवाओं में उड़ा फिरता है ये कभी पेड़ के साए से निकलता ही न था दौड़ पड़ता था जहाँ रेत से जलते थे क़दम साथ दरिया था मगर डर से उतरता ही न था ऐसी सर्दी में वहाँ जा के कहाँ सुसताए पार नद्दी के कोई धूप का ख़ेमा ही न था रात का पेड़ उगा था कि कोई साया था क्या कहूँ हाथ लगा कर उसे देखा ही न था कितने आज़ाद थे बरसात के ख़ुद-रौ नाले अपनी दुनिया थी कोई पूछने वाला ही न था हादिसा ऐसा भी पेश आएगा मर जाऊँगा ख़्वाब ऐसा तो कभी उम्र में देखा ही न था शाइरी ने मुझे इंसान बनाया है 'ख़लील' मैं वो शीशा था कि दुनिया से चमकता ही न था