नक़्श-ए-क़दम हुआ हूँ मोहब्बत की राह का क्या दिल-कुशा मकाँ है मिरी सज्दा-गाह का गर्मी सीं आफ़्ताब-ए-क़यामत की क्यूँ दरूँ साया है मुझ कूँ सर्व-ए-क़यामत-पनाह का नासूर हो कि रोज़-ए-क़यामत तलक बहे जिस के जिगर में तीर लगे तुझ निगाह का पिव का जमाल देख हुआ चाक चाक दिल जियूँ कि कताँ पे अक्स पड़े नूर-ए-माह का डोरे नहीं हैं सुर्ख़ तिरी चश्म-ए-मस्त में शायद चढ़ा है ख़ून किसी बे-गुनाह का दिल तुझ बिरह की आग सीं क्यूँकर निकल सके शो'ला सें क्या चलेगा कहो बर्ग काह का सुम्बुल है जियूँ कि जल्वा-नुमा जूएबार पर आँखों में मेरी अक्स दो-ज़ुल्फ़-ए-सियाह का महताब-रू के रुख़ पे सियह ख़त नहीं 'सिराज' जा कर खला हुआ है मिरे दूद आह का