नाख़ुदा भी नहीं ख़ुदा भी नहीं कोई मेरा तिरे सिवा भी नहीं मुद्दआ' ग़ैर मुद्दआ' भी नहीं और हसरत का पूछना भी नहीं काहिश-ए-ग़म हरीफ़-ए-जाँ ही सही ग़म न हो तो यहाँ मज़ा भी नहीं शीशा-ए-दिल तो चोर है लेकिन आसरा है कि टूटता भी नहीं हुस्न का अक्स है हिजाब-ए-नज़र फिर जुनूँ को तो सूझता भी नहीं बज़्म से उन की उठ गया ख़ुद मैं कोई पुर्सान-ए-हाल था भी नहीं इश्क़ में पड़ के लुट गया 'राज़ी' उन को ग़म है कि कुछ हुआ भी नहीं