नामा-बर ख़त दे मुझे इस से तुझे क्या काम है है नवेद-ए-ज़िंदगी या मौत का पैग़ाम है दिल में है याद-ए-बुताँ लब पर ख़ुदा का नाम है कहने सुनने को फ़क़त मज़हब मिरा इस्लाम है जीते जी मुझ को मिला कुछ भी न लुत्फ़-ए-ज़िंदगी कुश्ता-ए-सद-आरज़ू मेरा दिल-ए-नाकाम है आँख भी वो तू ने दी जो उम्र भर रोती रही दिल भी तू ने वो दिया जो कुश्ता-ए-आलाम है क्यों मिरे बालीं पे बैठे रो रहे हैं वो सदा किस तरह मैं उन से कह दूँ अब मुझे आराम है हिज्र में 'फ़ाज़िल' कहाँ तक रोज़ मर मर के जियूँ ज़िंदगी तो ज़िंदगी अब मौत भी बदनाम है