नमी आँखों की बादा हो गई है पुरानी याद ताज़ा हो गई है है मुझ को ए'तिराफ़-ए-जुर्म-ए-उल्फ़त ख़ता ये बे-इरादा हो गई है चले आओ हुजूम-ए-शौक़ ले कर रह-ए-दिल अब कुशादा हो गई है गुमाँ होने लगा है हर यक़ीं पर तिरी हर बात वअ'दा हो गई है मिले हो जब भी तन्हाई में 'दरवेश' कोई तक़रीब-ए-सादा हो गई है