ना-मुरादी ही लिखी थी सो वो पूरी हो गई ज़िंदगी जल कर बुझी और राख जैसी हो गई लोग क्या समझें कि ग़म से शक्ल कैसी हो गई आइना टूटा तो क़ीमत और दूनी हो गई रफ़्ता रफ़्ता दूरियों से आँच धीमी हो गई लेकिन इक तस्वीर थी दिल में जो गहरी हो गई दो निगाहों का तसादुम चंद लम्हों का सवाल और रुस्वाई जहाँ में उम्र-भर की हो गई याद से तेरी हुए पुर-नूर अपने रोज़-ओ-शब दिल की रानाई बढ़ी और रात उजली हो गई सोज़-ए-दिल ने रफ़्ता रफ़्ता राख हम को कर दिया हम ये समझे थे कि शायद आग ठंडी हो गई कितने जौहर कर दिए पैदा मआल-ए-इश्क़ ने दिल में कैसा सोज़ कैसी दर्द-मंदी हो गई 'वज्द' हम अब तक न समझे रम्ज़-ए-तकमील-ए-वफ़ा दम घुटा रातों को अक्सर जान आधी हो गई