नर्मी-ए-बालिश-ए-पर हम को नहीं भाती है दम-ए-शमशीर पे सर रक्खें तो नींद आती है क्या बुरी ख़ू है मिरी भी कि ब-ईं दावा-ए-अक़्ल मैं भी जाता हूँ वहाँ जान जहाँ जाती है ना-क़ुबूल इतना हूँ मुर्दे को मिरे ब'अद-अज़-मर्ग गोर में रक्खें तो मिट्टी भी नहीं खाती है हुस्न देखा है मगर हिन्द की तस्वीरें का लैला बाज़ार में शक्ल अपनी जो बदलाती है न बचेगा कोई हरगिज़ जो है रुख़ की ये सफ़ा न जियेगा कोई मुतलक़ जो ये ख़ुश गाती है ख़ैर-सल्ला से नसीम-ए-सहरी घर जावे कर के ज़िक्र-ए-रुख़-ए-गुल क्यूँ मुझे पिटवाती है सितम-बाद-ए-ख़िज़ाँ से जो कोई गुल की कली शाख़ पर ख़ुश्क हो रह जाती है मुरझाती है बे-कसी अपनी का आलम मुझे आ जाए है याद कि गरेबाँ में मिरा सर यूँही झुकवाती है 'मुसहफ़ी' की कोई उम्मीद तो बर ला या-रब! मुद्दतों से ये तिरे दर का मुनाजाती है